हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ और पृष्ठभूमि
हिन्दी साहित्य का आरंभ एक निश्चित काल से जोड़ना कठिन है, क्योंकि भाषा और साहित्य का विकास एक निरंतर प्रक्रिया है। विद्वानों के अनुसार हिन्दी साहित्य की शुरुआत सातवीं शताब्दी से मानी जाती है, जब अपभ्रंश भाषा में साहित्यिक रचनाएँ होने लगी थीं। यह काल हिन्दी भाषा की भूमिका तैयार करने का समय था। वास्तव में सातवीं से दसवीं शताब्दी तक के काल को हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार करना अधिक उपयुक्त होगा।
हिन्दी साहित्य का काल विभाजन
हिन्दी साहित्य को सामान्यतः निम्नलिखित चार कालों में विभाजित किया गया है:
1. आदिकाल (7वीं शताब्दी मध्य से 14वीं शताब्दी मध्य तक)
2. भक्तिकाल (14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक)
3. रीतिकाल (17वीं शताब्दी मध्य से 19वीं शताब्दी मध्य तक)
4. आधुनिक काल (19वीं शताब्दी से वर्तमान तक)
यह विभाजन केवल समय के आधार पर नहीं, बल्कि साहित्यिक प्रवृत्तियों, विषयवस्तु और भाषायी स्वरूपों के आधार पर किया गया है।
आदिकाल और उसके नामकरण पर मतभेद
आदिकाल के नामकरण को लेकर विद्वानों में व्यापक मतभेद हैं। इस काल में रचित साहित्य प्राचीन राजाओं, वीरों और चारण कवियों से संबंधित था, परंतु इसमें धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक विषय भी मौजूद थे। आइए देखें किस विद्वान ने इस काल को किस नाम से संबोधित किया:
नामकरण | प्रस्तावक | आलोचना |
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चारणकाल | ग्रियर्सन | ठोस प्रमाणों का अभाव, कोई रचना 1000 ई. तक नहीं मिलती |
प्रारम्भिक काल | मिश्रबन्धु | केवल सामान्य नाम; साहित्यिक विशेषताओं का अभाव |
वीरगाथाकाल | आचार्य रामचंद्र शुक्ल | 12 ग्रंथों के आधार पर; पर कई ग्रंथ अप्रामाणिक |
सिद्ध-सामंत काल | राहुल सांकृत्यायन | सामाजिक यथार्थ पर केंद्रित; साहित्यिक विविधता नहीं झलकती |
बीजवपन काल | महावीर प्रसाद द्विवेदी | साहित्यिक परिपक्वता को नकारता है |
वीरकाल | विश्वनाथ प्रसाद मिश्र | केवल वीरकाव्य पर केंद्रित |
सन्धिकाल और चारणकाल | डॉ. रामकुमार वर्मा | जातिविशेष और भाषा संक्रमण पर आधारित; व्यापकता नहीं |
इन सभी में सबसे स्वीकृत और उपयुक्त नाम 'आदिकाल' है, जिसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने प्रतिपादित किया। उन्होंने इस काल के साहित्य में नवीनता, तेजस्विता, भाषा के अंकुर और विचारों की विविधता को प्रमुख माना।
भक्तिकाल: भक्ति की सृजनात्मक धारा
भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। 14वीं से 17वीं शताब्दी तक फैला यह काल भक्ति आंदोलन के प्रभाव में आया। इस युग को दो धाराओं में विभाजित किया जाता है:
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निर्गुण भक्ति धारा – कबीर, नानक, दादू आदि
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सगुण भक्ति धारा – तुलसीदास, सूरदास, मीरा आदि
इस काल में भक्ति के माध्यम से सामाजिक समानता, आध्यात्मिक चेतना और मानवता का संदेश साहित्य के माध्यम से दिया गया। भाषा में सरलता, भावों में गहराई और शैली में प्रभावशीलता इस काल की विशेषता थी।
रीतिकाल: शृंगार रस और काव्यशास्त्र का युग
रीतिकाल (17वीं से 19वीं शताब्दी तक) में कविता का केंद्र बिंदु नायिका, शृंगार, और राजाश्रय बन गया। इसे 'कविवृंदकाल' भी कहा जाता है क्योंकि इस युग में दरबारी कवियों की भरमार थी।
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प्रमुख कवि: बिहारी, केशवदास, भूषण, मतिराम
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प्रमुख प्रवृत्तियाँ: अलंकार, रस, नायिका भेद, रीति-निबंध
यद्यपि इस काल की आलोचना 'कृत्रिमता' और 'भावहीनता' के कारण होती रही है, फिर भी काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह काल अत्यंत महत्वपूर्ण रहा।
आधुनिक काल: नवजागरण से नवसाहित्य तक
19वीं शताब्दी से शुरू हुआ आधुनिक काल समाज सुधार, राष्ट्रवाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, और लोकतांत्रिक चेतना से प्रेरित था। इस काल को तीन प्रमुख चरणों में बाँटा जा सकता है:
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भारतेंदु युग – भारतेंदु हरिश्चंद्र को 'हिन्दी नवजागरण का जनक' कहा जाता है।
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द्विवेदी युग – महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भाषा, विचार और शैली को सुधारात्मक रूप दिया।
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छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, जनवादी कविता, दलित साहित्य, स्त्री लेखन आदि विविध धाराओं का विकास
इस काल में गद्य, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, निबंध, कहानी जैसे विविध साहित्यिक रूपों का विस्तार हुआ।
निष्कर्ष
हिन्दी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण केवल साहित्यिक इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक यात्रा का दर्पण है। जहाँ आदिकाल हमें भाषा की जड़ों से जोड़ता है, वहीं भक्तिकाल हमें आत्मिक और सामाजिक चेतना से भरता है। रीतिकाल सौंदर्य की खोज करता है और आधुनिक काल हमें यथार्थ और परिवर्तन की दिशा में ले जाता है।
'आदिकाल' का नामकरण इस संपूर्ण कालक्रम का सबसे चर्चित और बहस का विषय रहा है, परंतु अंततः 'आदिकाल' ही वह नाम है जो हिन्दी साहित्य की विकासशीलता, विविधता और परंपरा का समुचित प्रतिनिधित्व करता है।